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“होली का सच्चा रंग – Holi Contest”

बनारस पर कुछ भी...
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जीवन रंगों से भरा है| रंग हर वस्तु को एक नया रूप देते हैं| कुछ वर्षों पूर्व की बात है होली की पूर्वसंध्या पर हम अपने कुछ यार दोस्तों के साथ अपने नित्य-निरंतर-पावन कर्म अड़बाज़ी में तल्लीन थे| बनारसी मस्ती और चुहलबाज़ी चल रही थी| सहसा हमारे मन में सदैव की भांति बनारसी लंठई की तीव्र इच्छा बलवती हो उठी| स्वभावानुरूप हमने अपनी ज़हरीली ज़ुबान से लाख टके का सवाल दाग दिया| “होली आ रही है यारों, बताओ कौन से रंगे सियार बनोगे तुम लोंग?” हमारी बात सुनकर हमारे मित्रगण भौंचक्के रह गए| फिर संभलकर बोले, “क्या मतलब?” तब हमने उनकी तुच्छ बुद्धि की रुखी-सूखी धरती पर अपने ज्ञान का वर्षण कर के उनकी आँखें खोलते हुए कहा, “मूढ़मतिधारकों! यूँ तो होली बहुरंगी होती है पर फिर भी हर किसी का कोई न कोई पसंदीदा रंग होता है, है कि नहीं?” सभी मूर्खराज कोरस में चिल्लाये, “हां गुरु!!!” तब हमने अपने मुखारविंद से पुनः ज्ञानामृत की फुहारें देते हुए उवाच किया, “तो बताओ कि तुम सभी को कौन-कौन से रंग पसंद हैं, और हां इस बार कोरस में आवाज़ नहीं आनी चाहिए, सब के सब बारी-बारी से जवाब दो| चल बे लल्लन! पहिलेतोर बारी हउवे ला|” अभी लल्लन ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि पीछे से जित्तू पानवाला चिल्लाया, “गुरु जी! छांगुर गुरु भी आ रहे हैं| “ नज़र उठा कर देखा तो पकान की धोती-कुर्ता और कंधे पर ख़ालिस सफ़ेद अंगरखा रखे हुए, माथे पर बाबा विश्वनाथ के प्रतीकस्वरूप चन्दन का त्रिपुण्ड धारण किये हुए, सर पर लहराती हुई गठबद्ध चुण्डी लिए, मुंह में गिलौरी दबाये और हाथ में पनडब्बा लिए छांगुर गुरु अपनी रोबीली चाल से हमारी ही तरफ़ आ रहे हैं| जैसे-जैसे उनकी भीमकाय धजा क़रीब आती गयी, उनकी जयपुरी जूतियों की चरर-मरर और स्पष्ट सुनाई देने लगी| अब हमारी पेशानी पर बल पड़ गए| अभी तक तो हम अपने अधकचरे ज्ञान के बलबूते ‘अन्धन में कनवा राजा’ बने बैठे सेवा-सुख भोग रहे थे पर अब हम उस परमानन्द से छांगुर गुरु के चलते वंचित होने जा रहे थे|

 

आगे बढ़ने से पहले आपको छांगुर गुरु से परिचित करवा दें क्यूँ कि अब हमारे ब्लॉग पर आपकी उनसे गाहेबगाहे मुलाक़ात होती ही रहेगी| तो छांगुर गुरु का यह नाम ऐसे ही नहीं पड़ा| दरअसल छांगुर गुरु का यह नाम ऐसे ही नहीं पड़ा| गुरु के बाएं हाथ में छः उंगलियां है और इन छः उँगलियों के चलते उनकी पकड़ भी किसी ऐरे-गिरे नत्थू-खैरे आम पांच उँगलियों वाले हाथ से ज़्यादा मज़बूत है| जिस-जिस के कपोलों पर गुरु के सिद्धहस्त के लाफ़े का छापा पड़ा वो या तो सीधे धूल चाट कर स्वचालित और स्वाभाविक रूप से पनाह मांगते हुए गुरु के श्री चरणों में आ गिरा और उनका शागिर्द हो गया या फिर ऐसी गली पकड़ ली जहाँ गुरु की परछाई भी न पड़ती हो| ऐसा नहीं है कि गुरु सिर्फ़ बाहुबल के कारण गुरु हो गए| बाएं हाथ की छः उँगलियों की तरह गुरु की पांच इन्द्रियों के साथ छठी इन्द्रिय भी जागृत अवस्था में हैं जिसके चलते जटिल से जटिल मसले का हल चुटकियों में निकाल लेना उनके छः उँगलियों वाले बाएं हाथ की छठी ऊँगली का खेल है| गुरु के ज्ञान का प्रताप दूर-दूर तक फैला हुआ है| किसी के मन में किस भी विषय से जुड़ा हुआ कैसा भी सवाल आता है तो उत्तर की चाह में सर्वप्रथम उसके दिलो दिमाग में गुरु की चमत्कारी छवि ही कौंधती है और वो दौड़ा-दौड़ा गुरु की शरण में आ पहुँचता है| अपने बाएं हाथ के समान ही गुरु की विभिन्न विषयों यथा – सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि पर मज़बूत पकड़ है| उफ़, गुरु के बखान के चक्कर में हम तो विषय से ही भटक गए| क्या करें, गुरु हैं ही ऐसे| खैर, गुरु पर चर्चा फिर कभी, अभी अपनी बात पूरी करते हैं|

 

तो गुरु के आते ही हम सब ससम्मान खड़े हो गए और रिवाज़ के मुताबिक उन्हें सर्वोच्च आसनदिया गया| हमारे बदहवास चेहरे को देखते ही गुरु भांप गए कि यहाँ कुछ माजरा ज़रूर है| गुरु ने पूछा, “ का हो पंडीजी… आज कवन नया पंचाइत फइहइले हउवा?” हमने कहा, “कुछ नाही गुरु जी! बस तनीरंग-वंग पर चर्चा चलत रहल| हम पूछत रहली कि केके कवन-कवन रंग पसंद हौला फेर ओप्परआपन विश्लेषण प्रस्तुत करतीं|” “रजा, होली पे ई काम तऽ बढ़िया करला तू| सुरु होजा चेला लोगन|” गुरु का आदेशात्मक स्वर गूजते ही लल्लन उठ खड़ा हुआ और बोलने लगा| “गुरु जी.. हम्में त लाल रंग बहुत पसंद हउवे ला| एह लिए कि ऊ दूरे से दिख भी जाला अऊर हमार मेहररूवा भी ई रंग कऽ साड़ी में बड़ी जमेले|” अब चूंकि शासन की कमान हमारे हाथों से निकल कर गुरु के पास जा चुकी थी इसीलिए बोलना भी उन्हीं को था| गुरु ने पान की पीक किनारे की नाली में डिपोजिट की, आहिस्ता से होठों के किनारे बह आई लाली को पोंछा और बोले, “ देख बे लल्लनवा ई सब खतरनाक रंग छोड़ दे अगर जिनगी से प्यार हउवे ला तऽ मेहरारू के फेर में मत पड़| नाहीं तऽ ऊ तऽ तोरे छोटका भाई के साथ फरार हो जाई अउर तैं हाथ मलत रह जईबे| चल बेटा..राधेश्याम..अब तोर बारी हौला|” गुरु के इतना कहते ही राधेश्याम उठ खड़ा हुआ और किसी टेप रिकॉर्डर की भांति बोल उठा, “गुरु जी, हम्में तऽ बसंती रंग बहुत पसंद हउवे ला काहें की हमरे बीवी कऽ नाम भी बसंती हौला अउर जवान मजा बसंत के मौसम में होला उ कही अवर नाही होला..चुप रह कमअक्ल…” उसकी बात को काटते हुए गुरु बीच में ही बोले..| “ई लल्लनवा कम रहा का की तहूँ आ गईले.. सब सारे जोरू कऽ गुलाम हउवन..| अबे इहाँ पसंदीदा रंग के बारे में बतावे के कहल जात हौला अउर तोनहने मेहरी क गुणगान करे लगले|”  गुरु की दृष्टि कतार में अगले व्यक्ति की और घूमी और रामलाल इशारा समझ कर उठ खड़ा हुआ और गुरु के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा| गुरु की सहमति भरी दृष्टि देखकर रामलाल कहने लगा, “ गुरूजी, हमके हरियर रंग पसंद हउवे ला| ओकर वजह ई हाउ कि मन मिज़ाज खुश रहेला और गर्मी में भी ठण्डक कऽ अहसास रहेला साथ ही साथ गंगा ओ पार कऽ रेती के बाद वाली हरियरी भी याद आ जाला|” इस बार गुरु कुछ संतुष्ट दिखे पर बोले नहीं और रामलाल को ऊँगली के इशारे से बैठने को कहते हुए उसी ऊँगली के इशारे से अगले प्रतिभागी को उसकी बारी आने का संकेत देकर खड़ा कर दिया| अब बारी थी छक्कन की| छक्कन बोला, “गुरूजी! हमके त सफ़ेद रंग बहुत पसंद हउवे ला काहें से कि ई शांति कऽ प्रतीक होला अउर….. तोहरे पड़ोस वाली कऽ नाम भी शांतिये हउवे ठीक न…”उसकी बात काटते हुए गुरु बीच में ही बोल पड़े|  अपनी खींसे निपोरते हुए छक्कन बैठ गया और गुरु की इस चुटकी पर हम सबके ठहाके गूँज उठे| अब बारी थी जगरनाथ की| जगरनाथ ने कहा, “ गुरु जी हम्में तऽ करिया रंग पसंद हाउ काहें कि एक त हम खुदे करिया हईं दूसरे कहल भी गयल हौला कि सब रंग कच्चा करियवा रंग पक्का,” फिर अपनी जगह पर बैठ गया|अब और कोई बचा नहीं था तो गुरु ने जित्तू पानवाले पर दृष्टिपात किया और प्रश्नात्मक लहज़े में अपनी भवें हिलायीं..इशारा समझकर जित्तू बोला, “ गुरूजी, महाराजजी आप ही कऽ चेला हईं त आपसे अलग राय कईसे रक्खब|” “चल अच्छा आज चापलूसी न मनाई!! जल्दी से बता दे कवन वाला रंग|” गुरु ने प्यार से डपटते हुए कहा| “तऽ गुरूजी हम्में पीयर रंग बड़ी पसंद हउवे काहें से कि अभी तक न तऽ हमार पियरी चढल न ही हमारे देंह पे हरदी लगल हौला|” गुरु अपने रहस्मय अंदाज़ में मुस्कुराते हुए अब आखिरी प्रतिभागी यानि हमारी तरफ़ मुखातिब हुए और सवाल दागा, “ का हो पंडीजी…?? तोहार का विचार हउवे ला?” हम चूंकि गुरु के परम शिष्य ठहरे इसलिए हमें थोड़ी छूट का भी सौभाग्य प्राप्त था फ़ौरन बोले, “ गुरु… हमके तऽ केसरिया रंग बहुत पसंद हउवे काहें से कि उ हमने की सनातन संस्कृति क झलक देवेला|” हमारे जवाब से गुरु संतुष्ट दिखे तो हमने भी चैन की सांस ली|

 

अब हम सब एकटक गुरु के मुखारविंद से अवतरित होने वाले भावी परम सत्य की प्रतीक्षा में उन्हें निहारे जा रहे थे| गुरु ने पानी से भरा लोटा उठाया मुंह कुल्ला करके साफ़ किया , मुंह कुल्ला कर के साफ़ किया, पनडब्बा खोला और एक अदद मगही की गिलौरी अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बिना उँगलियाँ मुंह से सटाए निशाना साध कर मुंह में डाली| तम्बाकू और किमाम को सुपारी पर लगाते हुए गुरु ने दार्शनिक भाव अपनाया और बोले, “ बच्चा लोंग, तुम सबकी पसंद अपनी-अपनी जगह पर ठीक है, रंग सभी अच्छे होते हैं बशर्ते उन्हें रंग ही रहने दिया जाए और सियासत या तिजारत न जोड़ी जाए| रंग चाहे जैसा भी उसके पीछे की भावना शुद्ध और अपनत्व से भरी होनी चाहिए| और इस दृष्टि से देखो तो अमन का रंग सबसे बेहतरीन होता है| हर रंग उसी के रंग में रंग जाता है| तो इस बार ध्यान रखना कि हुल्लड़ और हुड़दंग करो मगर किसी को कष्ट देकर नहीं| ऐसे करो कि सब हंसी ख़ुशी त्यौहार का आनंद लें और चैनो अमन से त्यौहार गुज़र जाए| यही सही भी है और यही अच्छा भीऔर यही होली का सच्चा रंग है|” हम सब गुरु की चमत्कृत कर देने वाली वाणी के प्रताप से जड़वत हो चुके थे और गुरु पुनः अपने दर्शन में खो चुके थे|

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