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गंगा मईया की व्यथा- जीवन की दिशा

बनारस पर कुछ भी...
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मित्रों, एक लंबे अंतराल के बाद आप सबके समक्ष पुनः हाज़िर हैं. व्यवसाय और नौकरी दोनों में ही रत होने कारण लेखन तो दूर खुद की खबर भी नहीं रख पाते फिर भी शौक़ ऐसी चीज़ है कि चोरी-छुपे ही सही बाकी कामों से वक़्त बचा कर इसे पूरा कर ही लेते हैं. पिछले साल होली की छुट्टियों में पोस्ट की थी उसे आप सब के साथ मंच की भी सराहना मिली थी. इस बार भी होली पर ही मौक़ा मिला है तो सोचा आप सब से एक बार मिलते ही चलें. मेरे कथानक के प्रमुख पात्र ‘छांगुर गुरु’ से भी आप परिचित हो चुके हैं (अगर नहीं हैं तो मेरा पिछला ब्लॉग ‘होली का सच्चा रंग पढ़ें). हम आशावान हैं कि छांगुर गुरु की छवि धुंधली भले ही पड़ गई हो आपके ज़हन में पर उन्हें भूले नहीं होंगे आप. आज फिर एक कहानी उन्हीं के साथ ले कर हाज़िर हैं.

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गंगा मईया की व्यथा और जीवन की दिशा

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इन दिनों गर्मी अपने प्रचंड और विकराल रूप के दर्शन कराने में रंच मात्र भी कोताही नहीं बरत रही. कभी कभी तो सूर्य देवता का कोप देख कर मालूम होता है कि साक्षात् भोलेनाथ ताण्डव नृत्य में लीन हो कर आपना तीसरा नेत्र खोले हुए हैं. ऐसे में एक रविवार की सुबह छांगुर गुरु, हम व एक-दो चेलागण विश्वविद्यालय की ताज़ी हवा खा कर घाट-घाट के रास्ते काशी के कोतवाल ‘बाबा कालभैरव’ के दर्शन-पूजन के लिए निकल पड़े. अस्सी घाट पर कदम रखते ही सुबहे बनारस के अलौकिक सौंदर्य की छटा से अभिभूत हो कर मौन ही चलते रहे. गंगामहल घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले ही गुरु ने यकायक मौन भंग करते हुए कहा, “अबे छक्कनवा!! तईं सा दउड़ के जो अउर श्यामसुन्दर मांझी के सहेज दे कि कटर (एक छोटी नाव) खोल के साथ-साथ खेवत चले, कहीं मन करी तऽ बहरी अलंग कऽ आनन्द भी उठा लेवल जाई. तबले हम लोग धीरे-धीरे बढ़त हईला.” “जी गुरूजी” कह कर छक्कन फ़ौरन ही मल्लाहों की अड़ी की ओर दौड़ पड़ा.

सुबहे बनारस से हट कर घाटों को छोड़ती गंगा मईया पर दृष्टि पड़ते ही अभी तक प्रफुल्लित रहा मन व्यथित हो उठा. किनारे इस तरह से बजबजा रहे थे कि उबकाई सी आने लगी पर मईया के प्रति हमारे हृदय में भरी अपार श्रद्धा ने ऐसा होने नहीं दिया. फिर भी हमारे चेहरे पर उभरे खिन्नता के भाव को गुरु की पारखी नज़रें तुरंत तड़ गईं. गुरु बोले, “का यार पंडीजी? मईया कऽ दुर्दशा देख के तकलीफ़ होत हौला न?” “हाँ गुरु, कब तक ले अईसे ही चलत रही? का हम लोग बस देखते रहल जाई? कौनो उपाय नाहीं हो सकत हौला एकर?” हम एक ही साँस में ताबड़तोड़ तीन सवाल पूछ गए. एकबारगी गुरु के दीप्त ललाट पर सिलवटें उभरीं पर वह तुरंत ही संयत हो कर समझाने के अंदाज़ में बोले, ” देखा पंडीजी! ई कुल दू-चार दिनन कऽ खेला नाहीं हउवे ला.” “तब कईसे होई गुरु?” हमने फिर सवाल दागा. अब गुरु के  चेहरे पर उनकी चिरपरिचित मुस्कुराहट तैरने लगी जिसे देख कर हमारे व्यग्र मन की कुलबुलाहट कुछ मंद पड़ी और आशा से भरे एक नए युग का सूत्रपात होता सा नज़र आने लगा. गुरु बोले, ” चला, चलत-चलत बात कर लेवल जाई, रस्ता भी कट जाई अउर पता भी नऽ चली.” हम और गुरु साथ-साथ तुलसी घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगे. पीछे से छक्कन भी दौड़ता हुआ आ पहुंचा. गुरु ने उसकी तरफ़ देखा, हांफता हुआ छक्कन तुरंत उनकी दृष्टि भांप गया और गुरु के पनडब्बे का ढक्कन खोल कर ससम्मान गुरु को ओर बढ़ा दिया. पनडब्बा थामते हुए गुरु ने सवाल पूछा, “का बे? श्यामसुन्दर आवत हौ ला कि नाहीं?” छक्कन की साँसों की रफ़्तार अभी तक कम नहीं हुई थी फिर भी उसने तुरंत उत्तर दिया, “हाँ गुरु जी! अभईने बड़की डोंगी ले के लउटल हउवन. तनी पानी-वानी पी के आवत हउवन.” गुरु ने मगही की गिलौरी निकाली, उसे अपने माथे से लगाया (चूँकि ये दिन का उनका पहला पान था) और सधे हाथ से अपने पेटेंट स्टाइल में उसे बिना हाथ मुंह से छुवाए मुंह के अंदर पहुंचा दिया. सुपारी के कैनवास पर चूने और किमाम की श्वेत-श्याम चित्रकारी करते हुए गुरु कहने लगे, ” इ कुल कोटर लउकत हउवेऽ न पंडीजी?” “हाँ गुरु, इ तऽ चिरईयन (चिड़ियों) बदे बनल हउवे.” “बिलकुल सही” गुरु के शाबासी भरे स्वर ने हमें आगे बोलने का साहस और बल दोनों ही प्रदान किये. हम कहने लगे, “अब तऽ कउनो बंसवो (बांस) नाहीं छोड़तन मईया कऽऽ धारा में कि चिरई कुल पनियो (पानी) पी सकैं,” लगे हाथ हमने ये भी कह डाला. “हाँ यार! अब त असल बनारसी तऽ रहे नाहीं गईलन. जवन हउवन वहू ख़ाली नाम कऽ रह गयल हयन सब.”

चलते-चलते हम चेतसिंह घाट पार कर के शिवाला घाट पहुँच चुके थे. “यऽ देखा पंडीजी, खुद के गोपाल कऽ वंशज कहे वाले मथुरा के काशी लियावे पर आमादा हउवन. भागीरथी के कालिंदी बनईले बिना न मनिहन (नहीं मानेंगे).” “उ कईसे गुरु?” हमने अपनी जिज्ञासा प्रकट की. “उऽ अईसे कि खुद तऽ नहईबे-निपटबे करिहें यही ठियाँ अउर अपने गोरूअन (मवेशी) कऽ झुण्ड भी मईया में खदेड़ देवेलन सब.” तभी वहाँ के नामी यादव बंधु “लाले सरदार”, जो सबसे ऊपर की सीढ़ी पर खड़े थे, की दृष्टि गुरु पर पड़ी, “पाऽऽ लगी गुरु!!” दोनों हाथ सर के ऊपर ला कर जोड़ते हुए वह चिल्लाए. “महादेव सरदार!” गुरु ने दाहिना हाथ उठा कर अपनी बुलंद आवाज़ में प्रत्युत्तर दिया. फिर मुझसे कहने लगे, “देखाऽ कुल भईंसियन (भैंसें) इनही कऽ हईन.” “गुरु उ भागीरथी अउर कालिंदी कऽ कुछ बात करत रहला,” हमने याद दिलाते हुए कहा. “ओकर मतलब कुछ सफा करबा?” गुरु ने पास के कूड़ेदान में अपनी पीक की धार पूरी रफ़्तार में डिपॉजिट की और हमसे मुखातिब हुए, “सीधा-सपाट मतलब हौ पंडीजी! यमुना के कालिंदी कहल जला काहें कि उनकर पानी तईं करिया (काला) हउवे ला, ठीक?” “हाँ गुरु!” “अउर गंगोत्री गोमुख याद हौ, जब हम लोग गयल रहलीं, कईसन पानी रहल ओ ठियाँ? “एकदम दूधिया गुरु.” ये कहते ही हमें गुरु के कथन का निहितार्थ भी समझ आ गया. “वाह गुरु!! तहूँ गज़बे ढंग से समझावेला, मज़ा आ गयल.” हमारे कहने पर गुरु मुस्कुरा दिए. हम आगे बढ़ते हुए हरिश्चंद्र घाट पर पहुंचे. गुरु ने कहा, “आवा… थोड़ी देर इधर बईठल जाए.” और गुरु धडधडा कर सीढ़ियाँ चढ़ कर हरिश्चन्द्रेश्वर महादेव के छोटे से प्रांगण में दाखिल हो गए. छक्कन ने तुरंत ही कंधे से गमछा उतारा और फर्श को फटक कर साफ़ किया हम सब विराजमान हो गए. बाहर नंदू चाय वाला हम सब की उपस्थिति भांप चुका था. उसने फौरन लोटा भर कर शीतल जल भिजवाया और गुरु की पसंदीदा नीम्बू की मसालेदार चाय बनाने में जुट गया. गुरु ने जैसे ही सीधा करने के लिए पाँव फैलाया, छक्कन उनके पाँव दबाने लगा. थोड़ी ही देर में चाय आ गई. चाय की स्वादिष्ट चुस्कियों के बीच गुरु कहने लगे, ” यार पंडीजी! एक्खे बात बतावा, जब हमहने मरल जाई त यही ठियाँ लियावल जाई फुंकाए बदे.” “हाँ गुरु!” हमने जवाब दिया. ” तू परम्परा निभईबा कि आज के बखत (वक़्त) कऽ मांग पूरा करबा?” इस बार हम गुरु का इशारा समझ गए. उनका तात्पर्य परम्परागत रूप से लकड़ियों पर जलाए जाने और अधजली हालत में प्रवाहित किये जाने से और विद्युत शवदाह गृह में जलाए जाने के बीच सही विकल्प के चुनाव से था. अब गेंद हमारे पाले में थी. “गुरु हम तऽ आज कऽ मांग के साथ जाब, अऽ तोहार का विचार हउवे ला?” “बहुत सही पंडीजी, हमहूँ तोहरे साथ हईं ला.” जवान परम्परा आपन विरासत के ही नष्ट कै दे ओके निभावे से अच्छा त्याग दा. परम्परा, रीति-रिवाज कुल संस्कृति से होला अउर हमहने के संस्कृति कऽ जननी, ओकर पोषिका गंगा मईये न रह जईहैं तऽ संस्कृति का ख़ाक बची?” छूटते ही गुरु बोले. अब हम सब फिर आगे के प्रस्थान को उठ खड़े हुए. हम कुछ ही दूर पहुंचे थे कि एक व्यक्ति आया और फूलमाला से भरी प्लास्टिक की थैली गंगा मईया में उछाली और उन्हें प्रणाम किया. वो वापिस जाने के लिए मुड़ा ही था कि गुरु उसके करीब पहुँच गए और पीछे से ही उसका गिरेबान पकड़ लिया. वो सकपका कर जैसे ही पलटा गुरु के छः उँगलियों वाले सिद्ध वामहस्त की करारी गर्दनिया पड़ने से उसने तुरंत ही धरती चूम ली. गुरु ने गिरेबान ही पकड़ के उसे उठाया. हैरान और सहमा वो इंसान बस इतना ही बोल सका, “क्या ग़लती हो गई भईया?” “ससुर वाले, आपन पाप धुल के मईया के गन्दा करत हउवे! इऽ प्लास्टिक क थैली फेंक के एक तऽ उनके कष्ट देत हउवे ओकरे बाद प्रणाम कर के उनके जरले पर नमक छिड़कत हउवे; हैं..!!!” गुरु की रौद्र वाणी से वो सूखे पत्ते की मानिंद काँप रहा था. गुरु ने उसका गिरेबान छोड़ा और गरज कर बोले, ” पउड़े (तैरना) आवे ला की नाहीं?” “न..नहीं”, वह भयभीत स्वर में बोला. “उठा के फेंक देईं तोहे पानी में?” “नहीं भईया जी,” वो हाथ जोड़ के गिडगिडाया. “छक्कन !! मार हेटर (गोता) अउर निकाल उ प्लास्टिक.” गुरु का आदेश मिलते ही छक्कन ने फौरन कपड़े उतार कर छलांग मारी और तेज़ी से तैर कर प्लास्टिक की थैली निकाल लाया. गुरु ने उस आदमी को थैली पकड़ाई और बोले, “ले पकड़ एके अउर भाग जो यहाँ से. आज कऽ बाद से अईसन करत दिख गईले तऽ तो उ हश्र करब की तोर फ़रिश्ता भी तोके पहिचाने से इंकार कर दिहन.” अपना गाल सहलाते हुए वो तेज़ क़दमों से निकल गया. तेज़ धूप के चलते छक्कन का बदन भी सूख चला था, उसने कपड़े पहने और हम फिर चल पड़े. टहलते-टहलते हम दशाश्वमेध घाट पहुँच चुके थे. अभी भी स्नानार्थियों का जमघट लगा हुआ था मगर हमें अभी कहाँ रुकना था. हमारी मंज़िल तो प्रह्लाद घाट के ऊपर थी. चलते-चलते हम प्रह्लाद घाट भी पहुँच गए. सीढ़ियाँ चढ़ कर हम सीधे भैरोनाथ बाबा के दरबार ही जा कर रुके. दिव्य दर्शन और पूजन के उपरांत हमने गोदौलिया का रुख किया और जा पहुंचे पूरन साव कचौड़ी वाले के यहाँ. अपने कटकटाये पेटों को ठंडा करने के लिए हमने ‘भज भाई अन्नं’ का जाप किया और दशाश्वमेध का रुख किया. वैचारिक मंथन का कार्यक्रम पुनः प्रारंभ हो गया. हमने जैसे ही पान मसाला निकाला तो गुरु हमें रोकते हुए बोले, ” काऽऽ याऽऽऽर!! केतना समझाईं तोहे? फेंका एके! यल्ला हमार पान खा.” गुरु के पनडिब्बे का लजीज पान अपने मुंह में सेट कर के हम सब चलने लगे.

सूर्य देव की रश्मियाँ अब शनैः-शनैः अपना प्रचंड रूप अख्तियार करने लगी थीं. चौकी घाट पहुँच कर हमने एक बार फिर क्षणिक विश्राम का निश्चय किया. गुरु ने कहा, “छक्कनवा !! निकाल त फ़रुई चना. तनी नाश्ता कर के सोते (बनारस के बहुतेरे घाटों पर पानी के कुदरती स्रोत पाए जाते हैं) से पानी पी लेवल जाए, का पता आवे वाले समय में यहू नसीब होवे कि नाहीं.” हम सब एक मढ़ी के नीचे जा बैठे और लाइ चने का आनंद उठाने लगे. उसी में थोड़ा सा चिनिया बादाम और जोन्हरी का परिमल एक अलग ही किस्म का मज़ा दे रहा था साथ में अदरक मिर्च की चटनी जायके को एक हसीं मोड़ दे रही थी. हम गुरु से पूछ बैठे, ” गुरु, अब समय एतना बदल काहें गयल हौ ला बाकि यहू कहल जा सकेला कि हमहने लोग बदल गयल हईंला, हैं गुरु?!” हमने गुरु का ध्यान आकृष्ट किया. गुरु ने अपने चबेने को गटका और बोले – “कउने समय क बात करत हउवा? दस साल पहिले कऽ? कि बचपन कऽ?” अचानक प्रश्नवाचक चिह्न हमारे ही माथे पर लटकने लगा था. हम तो किसी उत्तर की आस लगा के बैठे थे और अब हम खुद ही सवालों के सिफर के अंदर कैद थे और हमारे विचारों के सूरज पर ग्रहण का खतरा मंडराने लगा था. हम धीरे-धीरे संभले, कहा, “इ तऽ सोचबे नाहीं कईलीं गुरु! कुछ समझ भी नाहीं आवत हौला. अब पूछ लेले हईं त बतावा, तोहे बतावे के पड़ी.” हम अड़ गए. अब गुरु बोले, ” देखा जो कुछ भी बदलत हउवे ओकर एक ही वजह हौ अउर उ हमही लोग हईं. समय नाहीं बदलत उ तऽ शाश्वत होला जवन बदलेला उ हम लोग हईं हम लोग के आसपास कऽ परिस्थिति बदलेला. हम सब लोगन से इ संसार कऽ हर एक चीज़ कुछ न कुछ कहेला पर हम लोग ओके समझ नाहीं पाईला. आँख-कान के होले पर भी हमहने अंधा-बहिरा बनल बईठल हईं. हम लोग कभी उ भाषा के समझले कऽ कोशिश नाहीं करीला. दुनिया में जेतना भी महान लोग भयल हउवन उ सब लोग इ भाषा समझत रहलन. खैर जाए दा.. हम दूसरे टॉपिक पे जाए लगलीं इऽ बात फिर कभी बताईब तोहें, फ़िलहाल छोटे में एतना समझ ला के अगर तू इ सोचबा कि हर कोई तोहे समझे इ ज़रुरी तऽ नाहीं.” हमने नकारात्मक संकेत में सर हिलाया. ” लेकिन आठ-दस लोग त हो ही सकेलन जे तोहें समझें!” हमने इस बार भी सर हिलाया मगर सकारात्मक संकेत में. गुरु कहने लगे, “अउर एतना बड़ा संसार में एकागदूठे अदमी भी खोज ले ला जे तोहरे तरह सोचेलन तऽ इ समझ ला कि जीवन सार्थक हो गयल.” गुरु की बातें तो हमारी समझ में आ गईं पर हम यह नहीं समझ पाए कि गुरु ने हमारी सोच को लेकर ‘एक-दो आदमियों‘ को ये नहीं कहा कि ‘वे मुझे मिल जाएँ‘ बल्कि ये कहा कि हम उन्हें ‘खोज पाएं‘ तब. खैर हमने इस बात को किसी ऐसे समय के लिए छोड़ दिया जब केवल हम और गुरु ही साथ हों और इस रोचक रहस्यमयी विषय पर निर्बाध चर्चा हो सकेगी. कलेवा कर के हम उठने लगे ताकि सोते से प्यास बुझाई जा सके कि अब तक मूक दर्शक बने बैठे छक्कन ने हमें टोका, “बईठा गुरु, हम नंदू चाय वाले कऽ लोटा ले लेले रहलीं अभी सोता से पानी भर के लियावत हईला.” हम बैठ गए. गुरु ने कहा, “कभी सही समय पर इ बात करल जाई.” छक्कन फ़ौरन ही लोटा भर आया हमने लोटा थामा और गुरु की ओर बढ़ा दिया. गुरु ने अंजुरी में पानी लिया हाथ धुले और चुल्लू बना कर पानी पीने लगे. अब घर जाने का समय हो चुका था. चौकी घाट से उठ कर हम सब श्याम सुन्दर की नाव पर सवार हो कर वापस चल दिए.

गुरु की बातों ने हमारे भीतर गहरे तक असर कर दिया था पर हमें अभी तक इसका रंच मात्र भी आभास नहीं था. अस्सी घाट पहुँच कर जब हम सभी सायंकाल में पुनः मिलने का निर्णय कर के अलग हुए तो घर की ओर आहिस्ता-२ बढ़ते हुए हम अपने कल के शेष कार्यों को पूर्ण करने की योजना बनाने लगे मगर हमारा मन तो अपनी ही राह चला जा रहा था. उसके अंदर तो गुरु के शब्दों का बवंडर उथलपुथल मचाए हुआ था. घर पहुँच कर हमने गुरु की बातों को मन ही मन दोहराना शुरू किया. अब सबकुछ आईने के मानिंद साफ होने लगा. आज के हमारे सैर-सपाटे ने हमारी सोच और विचारों को एक नई और सार्थक दिशा दी थी. गुरु ने एक झटके में हमें परिवर्तित कर दिया था. गंगा मईया की व्यथा से शुरू हुआ गुरु का ज्ञान एक बहुत बड़ी सीख दे गया था और वो यह कि परम्पराओं और रीतिरिवाजों से जुड़ाव होना ही चाहिए मगर जब यही संस्कृति के पोषक के स्थान पर घातक सिद्ध होने लगे तो उसे त्यागने में विलम्ब नहीं करना चाहिए. हमने भी इस महत्वपूर्ण सबक पर अविलम्ब अमल करने का फ़ैसला ले लिया. आप क्या कहते हैं?


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